कैसे कोई तबदील हो, कुछ ‘बनने की प्रक्रिया से परे बस अस्तित्व की सहज स्थिति में रूपांतरण कैसे हो? वो शख्स जो कुछ बन जाने के चक्र में फँसा है, संघर्ष और कामनाओं में उलझा है, वो खुद ही से भिड़ा हुआ है वो उस स्थिति को कैसे जाने जो सद्गुण है, स्वतंत्रता है?
यानी कुछ ना कुछ होने बनने के लिए में बरसों से जद्दोजहद करता आ रहा हूं: ईर्ष्या से मुक्त होने के लिए, उससे पीछा छुड़ाने के लिए कैसे मैं इसे छोडूं और सहज हो जाऊं, जैसा हूं।
क्योंकि जब तक मैं ऐसा कुछ करने के चक्कर में रहता हूं, जिसे मैं सदाचार कहता हूं, पुण्य कहता हूं तो मैं ज़ाहिर तौर पर अपने ही चक्रव्यूह में फंस के रह जाता हूं; और उस चक्रव्यूह में कोई स्वतंत्रता नहीं होती सो में बस इतना ही कर सकता हूं कि सजग हो जाऊं, होने-बनने की अपनी इस प्रक्रिया के बारे में शांत, सजगा अगर मैं छिछला हूं, उथला-उथला, तो मैं शांत रूप से इस बारे में सजग हो सकता हूं कि हां मैं छिछला हूँ, कुछ और होने के किसी प्रयास में अटके बिना।
अगर मैं क्रोधी हूं, ईर्ष्यालु या बेरहम हूं, दूसरों से जलता हूं, तो मैं उसके बारे में होशपूर्ण रह सकता हूं, बिना कोई टकराव खड़ा किए। जिस घड़ी आप किसी गुण-अवगुण में उलझते हैं, आप संघर्ष को ही बल देने लगते हैं, और यूं प्रतिरोध की दीवार को और मज़बूती दे देते हैं।
प्रतिरोध की इसी दीवार को ही ‘सदाचार’ समझ लिया जाता है, किंतु ऐसे सदाचारी के जीवन में सत्य का दर्शन कभी नहीं हो सकता। वो तो केवल स्वतंत्र शख्स ही है जिसके दर पर सत्य दस्तक देता है, और हां, आज़ाद होने के लिए याद्दाश्त का पोषण काम नहीं आता, वह तो सदाचार है, यानी गुण-अवगुण में उलझ कर रह जाना।
सो निरंतर चलती इस जंग के बारे में, इस जद्दोजहद के बारे में हमें चौकन्ना रहना होगा। बिना किसी टकराव के बिना निंदा के महज़ सजग, और अगर आप सचमुच ही सजग होते हैं, निष्क्रिय, लेकिन चौकसी से भरे हुए, तो आप देखेंगे कि ईर्ष्या, जलन, लोभ, हिंसा और ऐसी तमाम चीजें गायब हो जाती हैं, और तब एक व्यवस्था उभरती है – सहज- स्फूर्त, एक व्यवस्था जो सदाचार नहीं होती, एक बंद दायरे में बंधी नहीं होती। क्योंकि सद्गुण, नेकी तो स्वतंत्रता है, किसी तरह की मजबूरी नहीं है। सिर्फ आज़ादी में ही सत्य उद्घाटित हो सकता है।
इसलिए नेकी ही बुनियादी मुद्दा है, न कि सदाचारी होना, क्योंकि नेकी ही व्यवस्था लाती है। वो सिर्फ सदाचारी ही है जो उलझा है, द्वंद्व में पड़ा है, वो केवल सदाचारी ही है जो प्रतिरोध के यंत्र के रूप में अपनी इच्छा शक्ति को मज़बूत करता है, और इच्छा शक्ति वाला शख्स कभी सत्य तक नहीं पहुंच सकता, क्योंकि वो कभी मुक्त नहीं होता।
‘जो है’ उसे पहचानते हुए उसे कबूल करते हुए, उसके संग जीना -उसे बदलने की कोशिश किए बिना, उसकी निंदा किए बिनानेकी में, सद्व्यवहार में जीना यही स्वतंत्रता है। सिर्फ वहां जहां मन स्मृतियों का पोषण नहीं करता, प्रतिरोध के शस्त्र के रूप में जब वह क़ायदे-कानून का, सदाचार का हवाला नहीं देता, वहीं स्वतंत्रता है, मुक्ति है, और तभी वह यथार्थ उभरता है, जिसका आनंद भोगने योग्य है।
प्रश्नः लगता है कि आप इस विचार से सहमत नहीं हैं कि भारत में हमें आज़ादी मिली है। आप के मतानुसार असल आज़ादी है क्या?
कृष्णमूर्तिः जनाब, आज़ादी जब एक राष्ट्र के दायरे में कैद हो जाती है तो महज़ एक अलगाव हो कर रह जाती है, और अलगाव तो लाज़िमी तौर पर टकरावों की तरफ ले जाता है, क्योंकि अलग-थलग हो कर तो कुछ रह ही नहीं सकता। होने का मतलब ही संबंधित होना है, अपने आप को कौमी हदबंदियों में रोक कर जुदा कर लेना तो सिर्फ उलझाव को ही बुलावा देगा टकराव, जंग, भुखमरी और दुख-क्लेशों को न्योता देगा, कितनी ही बार यह बात साबित हो चुकी है।
सो एक अलग राज के रूप में आज़ादी लाज़िमी तौर पर टकराव और जंग ही ले कर आएगी, क्योंकि ज्यादातर लोगों के लिए इस का मतलब ही अलगाव है और जब आप खुद को एक राष्ट्रीय पहचान के रूप में अलग कर लेते हैं, तो क्या यह आज़ादी है? क्या आप ने शोषण से मुक्ति पा ली, वर्ग- संघर्ष से, भुखमरी से, मज़हबी टकराव से, पंडे-पुजारियों से सांप्रदायिक तनाव से, लीडरों से? नहीं।
आप ने केवल गोरे लुटेरों को निकाल बाहर किया है, उनकी जगह काले हाकिमों ने ले ली है वो शायद और भी निर्मम होंगे। सब कुछ तो पहले जैसा ही है, वही शोषण, वही पंडे-पुरोहित और संस्थागत धर्म, वही अंधविश्वास और वर्ग-युद्ध क्या इससे हमें आज़ादी मिली है? बात तो यह है जनाब कि हम आजाद होना ही नहीं चाहते। बराय मेहरबानी खुद को मूर्ख मत बनायें। क्योंकि आज़ादी का मतलब होता है तत्काल सूझ- बूझ, प्रेम और उसमें निहित है शोषण का अभाव एवं सत्ता के सामने घुटने टेकने से इनकार। आज़ादी का मतलब है अद्वितीय सद्गुण, अद्भुत खूबी जैसा कि मैंने कहा, सदाचार
नीतिपरायणता तो सदा ही अलगाव की प्रक्रिया है, अलगाव और नीतिपरायणता तो साथ-साथ ही चलते हैं, जबकि सद्गुण और आज़ादी का चोली दामन का साथ है।
एक प्रभुसत्तासंपन्न राष्ट्र हमेशा अलग-थलग ही रहता है, और इसीलिए कभी आज़ाद नहीं हो सकता; यह निरंतर कलह की, शक-शुबह की, टकराव तथा युद्धों की वजह बना रहता है।
बेशक आज़ादी की शुरुआत व्यक्ति से होती है, जो कि अपने आप में एक मुकम्मल प्रक्रिया है, न कि समूह के विरोध में व्यक्ति ही संसार की पूरी प्रक्रिया है, और अगर वो ही खुद को राष्ट्रीयता अथवा नीतिपरायणता के नाम पर अलग-थलग कर लेता है, बांट लेता है, तब वही दुख और बरबादी की वजह हो जाता है। लेकिन अगर व्यक्ति-जो कि समस्त प्रक्रिया है, समूह के विरोध में नहीं, बल्कि जो खुद ही समूह का परिणाम है, समग्र का- अगर वह व्यक्ति खुद को तबदील कर लेता है, अपने जीवन को बदल लेता है, तो ही वह स्वतंत्र होता है। क्योंकि वह संपूर्ण प्रक्रिया का परिणाम है, जब वह खुद को राष्ट्रीयता से, लोभ और शोषण से मुक्त कर लेता है तो संपूर्ण पर उसका सीधा असर होता है।
व्यक्ति का पुनरुत्थान भविष्य में नहीं है बल्कि अभी है, अगर आप उसे कल के लिए टाल रहे हैं तो आप अंधेरे में भटक रहे हैं, उलझनों को बुलावा दे रहे हैं। पुनरुत्थान तो अभी है, कल नहीं, क्योंकि समझ तो सिर्फ वर्तमान में है। इस क्षण आप उसे नहीं समझते क्योंकि आप अपना दिलो-दिमाग उसमें झोंकते नहीं, जिसे आप समझना चाहते हैं उसमें पूरा ध्यान नहीं लगाते। अगर आप पूरे दिलो-दिमाग से किसी चीज़ को समझना चाहेंगे तो आप समझ जायेंगे।
श्रीमान् अगर आप हिंसा के मूल की तलाश में जी-जान लड़ा देते हैं, उसकी बाबत अगर पूरी तरह से सचेत हैं, तो आप इसी क्षण अहिंसक होंगे। लेकिन बदकिस्मती से हमने अपने दिमाग को इतना संस्कारित कर लिया है सामाजिक नैतिकता से, धार्मिक पलायनवाद से कि हम सीधे तौर पर उसे देखने में ही असमर्थ हो गए हैं, यही हमारी मुश्किल है।
तो समझदारी हमेशा वर्तमान में है, भविष्य में नहीं। बुद्धिमता इस क्षण है, आने वाले कल में नहीं। और आज़ादी, जो कि अलगाव नहीं है, वह केवल तभी हो सकती है। जब हममें से हर कोई समस्त के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी को समझता है। व्यक्ति समग्र की संतान है वह उससे जुदा नहीं है। आखिरकार आप पूरे भारत का परिणाम हैं, पूरी मानवता का।
आप खुद को भले ही किसी नाम से पुकारें, आप पूरी प्रक्रिया का परिणाम हैं, मतलब यह कि आदमी हैं। और अगर आप मानसिक मनोवैज्ञानिक तौर पर जो आप हैं, मुक्त नहीं हैं तो बाहरी तौर पर आप कैसे आज़ाद हो सकते हैं; उस बाहरी स्वतंत्रता का फिर क्या मतलब रह जाता है? आपकी अलग तरह की सरकारें हो सकती हैं क्या यह आज़ादी है?
आप प्रांतों की गिनती बढ़ा सकते हैं, क्योंकि हर कोई नौकरी चाहता है, पर क्या यह आज़ादी है ? श्रीमान सच तो यह है कि हम थोथी लफ्फाजी ही करते आये हैं, प्रोपेगंडे के प्रभाव में यानी झूठ में जीते आये हैं। हमने खुद कभी समस्याओं पर गौर ही नहीं किया, क्योंकि ज़्यादातर लोग पिछलग्गू होना ही पसंद करते हैं। हम सोचना और पता लगाना नहीं चाहते, क्योंकि सोचना तकलीफदेह है, भ्रांतियों को उघाड़ने वाला। या तो हम सोचते हैं और भ्रमों को टूटता हुआ देखकर सभी में दोष देखना शुरु कर देते हैं-या फिर सोचते – विचारते हैं और पार निकल जाते हैं।
और जब आप पार हो जाते हैं, सारी चिंतन प्रक्रिया से परे, वहीं आज़ादी है। और उसी में आनंद है, एक सृजनात्मक अस्तित्व है, जिसे अपने अलग-थलग अस्तित्व में जीने वाला, सदाचार के नियमों का पालन करने वाला, व्यक्ति कभी समझ ही नहीं सकता।
सो हमारी मुश्किल यह है कि हमारी सोच इधर-उधर व जहां-तहां भटकती रहती है, स्वाभाविक है कि हम उसमें व्यवस्था लाना चाहते हैं। किंतु यह व्यवस्था लाई कैसे जाए? देखिए एक तेज़ घूमती मशीन को समझने के लिए, हमें उसे धीमा करना पड़ता है, पड़ता है ना?
किसी डायनेमो को समझना है तो रफ्तार घटा कर उसका अध्ययन करना होगा, लेकिन अगर आप उसे बंद कर देते हैं तो वह एक मृत जड़ वस्तु हो जाएगी, और मुर्दा चीज़ को तो कभी समझा नहीं जा सकता। सिर्फ जीवंत शै को ही समझा जा सकता है। ऐसा मन, जो बाधाएं खड़ी करके या अलग-थलग हो कर विचारों का गला घोंटता है, कभी बुद्धिमान नहीं हो सकता, किंतु मन विचारों को धीमा करके उनकी प्रक्रिया को समझ सकता है।
अगर आप ने कभी धीमी गति की फिल्म देखी हो तो घोड़े के कूदते वक्त उसकी मांसपेशियों में होने वाली गज़बनाक हरकतों को आप अच्छे से देख सकते हैं, लेकिन जब वह झट से कूद जाता है, वह खूबसूरती खो जाती है, क्योंकि यह सब बिजली की रफ्तार से घटता है। उसी तरह मन जब धीमे-धीमे चलता है क्योंकि वह हर विचार को समझना चाहता है, जैसे ही वह विचार उठ रहा होता है, तो वहां विचार की जकड़ से छुटकारा मिलता है, अनुशासित और बांध बांध कर रखे गए विचारों से मुक्ति मिलती है।
विचार तो यादों की ही प्रतिक्रिया है, इसलिए विचार कभी सृजनात्मक नहीं हो सकते। जब आप नए को नए के ही रूप में मिलते हैं, ताज़े को ताज़ा ही देखते हैं, तभी सृजनात्मक हस्ती उभरती है। मन तो एक रिकार्डर है, यादों को संजोने वाला संग्रहकर्ता, और जब तक चुनौतियां यादों को जीवन देती रहती हैं, विचारों की हिलजुल चलती ही रहती है। लेकिन अगर हर सोच को गौर से देखा जाए, महसूस किया जाए, उसकी गहराई में उतरा जाए, और उसे पूरी तरह समझा जाए, तो आप देखेंगे कि यादें मुर्झाने लगती हैं।
हम मानसिक स्मृतियों की बात कर रहे हैं, तथ्यपरक स्मृति की नहीं।
जिद्दू कृष्णमूर्ति, बंबई, 7 मार्च 1948